गुलमोहर का वो पेड़ जहा हम पहली बार मिले थे
कुहरा-कुहरा चारो ओर था, गेंदे के फूल खिले थे
ख़ामोशी थी चारो ओर और सुबह के सात बजे थे
उनको तब पढ़ने जाना था, पर वो मेरे लिए खड़े थे
गुलमोहर का वो पेड़ जहा हम पहली बार मिले थे……….
होंठ उनके कांप रहे थे, हम भी कुछ गुमसुम थे
सहमे-सहमे वो भी थे और खोये-खोये हम थे
सोच रहे थे शायद हम के वो ही पहले कहेंगे
उधर से भी कुछ ऐसा ही था, पर हम भी अड़े खड़े थे
गुलमोहर का वो पेड़ जहा हम पहली बार मिले थे……….
आधे घंटे की ख़ामोशी को तोडा हमने हॅंस करके
फिर भी कुछ ना कह पाये हम, जो वो सुनने को बेकल थे
दोनों सब कुछ समझ रहे, पर कहने में असफल थे
गुलमोहर का वो पेड़ जहा हम पहली बार मिले थे……….
वक़्त भी कब तक मेहरबां रहता, बड़ी देर से हम तनहा थे
कुहरा भी अब छटने लगा था, कुछ लोग दिखने लगे थे
सोचा अब जाना होगा, हम जाने को ज्योही मुड़े थे
हम तुम बिन ना जी पाएंगे, आहिस्ते से पीछे से तब उनके होंठ हिले थे
गुलमोहर का वो पेड़ जहा हम पहली बार मिले थे……….
“ऋतेश “