“नज़्म जो लिखे थे तुम पर”

नज़्म जो लिखे थे तुम पर कई साल पहले सर्दियों में
जाने कहाँ छिटक कर गिर गए हैं वो मेरी डायरी से
मैंने बहुत ढूँढा पर कहीं ना मिला अब तक कुछ भी
हाँ मगर धुंधला सा याद है थोड़ा बहुत जोड़ कर देखूंगा हर्फ़ दर हर्फ़
शायद कहीं वो अधूरी नज़्म मुकम्मल हो जाये

मैंने लिखा था उसमे के कैसे हर रात पहर दर पहर तेरे पहलु में गुज़रती हुई
मेरे जिस्म पर तेरे सुलगते होंठो के कई निशान छोड़ जाती है
पर सुरमई सुबह में जब अलसाई सी तू मेरे माथे पर सूरज उगाती है
रूह मेरी तेरे सज़दे में कई मर्तबा झुकती जाती है

मैंने लिखा था के खुदा करे हर शाम और सहर यूँ ही गुजरती रहे
कभी मैं तेरे पहलू में सिमटू कभी तू मेरे साये में महकती रहे
मैंने लिखा था के जब भी मैं पिघलता हूँ पहाड़ पर जमी बर्फ के माफिक
तुम मुझे थाम लेती हो चुपचाप नदी के जैसे
मैं क़तरा – क़तरा समां जाता हूँ तुम में और तुम मुझे बहा ले जाती हो
खूबसूरत वादियों में झरनों में जंगलों में

मैंने लिखा था उसमे के आसमान का चाँद भी फीका लगता है तुम्हारे आगे
बहती नदी कहाँ ठहरती है तुम्हारी चाल के आगे
सावन उतरता है बूँद दर बूँद प्यासी धरा पर जब तुम बालों का जूड़ा खोलती हो
अलसाया सूरज पहाड़ के पीछे से निकलता है तभी जब तुम माथे पर बिंदिया सजाती हो

ज़िक्र उसमे तुम्हारे होंठो पर बड़े कायदे से रखे तिल का भी था
जिस पर सौ दफा कोशिश करूँ शब्दों में ढालने की नाकाम कोशिश ही हो पाती है मुझसे अब भी
दूरियां भी लिखी थी मैंने नज़दीकियां भी लिखी थी ख़ुशी के कुछ पल भी थे उसमे सिसकियाँ भी लिखी थी

बस इतना ही याद है बस इतना ही याद है
घर में धुआं भर गया है सुबह का तारा खिड़की से झांक रहा है
ख्वाब इशारे से बुला रहे हैं नींद की आगोश में
लालटेन की लौ भी मद्धम हो चली है शाम के कीड़ों की हज़ारों लाशें पड़ी हैं कमरे में
और मैं भी यादों के बाजार में घूम घूम कर थक सा गया हूँ

कुछ हद तक नज़्म मुकम्मल लग रही है अब से इसे अधूरा नहीं कहूंगा
अगली बार से नज़्मों को संभाल के रखूँगा
अगली बार से नज़्मों को संभाल के रखूँगा

“ऋतेश“

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