तुझे ख्वाब लिखूं, मेहताब लिखूं, आरज़ू लिखूं, ज़ुस्तज़ू लिखूं या कुछ और
तेरा मासूम सा अल्हड़पन छेड़ देता है मन के सारे तार
और गूँज उठता है इक संगीत आबो-हवा में
सच कहूँ तपती रेत में पहली बरसात सी लगती है तू
मुझे बहका देती है तेरी कस्तूरी जब तू गुज़रती है हिरनी सी मदमस्त बेख़ौफ़ मेरे अगल-बगल
मैं स्थिर हो जाता हूँ दो पल इस शहर के शोर में
खुदा कसम सर्द ठिठुरती सुबह में मीठी धूप सी लगती है तू
तुझे अदा लिखूं, लहज़ा लिखूं, कायदा लिखूं, सलीका लिखूं या कुछ और ……………………………
तेरी झील सी गहरी, ठहरी दो आँखों में तैरते ख्वाब,
मैं साफ-साफ देख पाता हूँ अपनी बंद आँखों से भी
और जोड़ लेता हूँ मैं उन्हें अपने ख्वाबों की फेहरिस्त में सच करने को
बात कुछ और नहीं है बस इतना समझ ले
ज़िंदगी की कड़वाहट में मीठी शहद सी लगती है तू
तुझे रफ़ीक़ लिखूं, नसीब लिखूं, ज़रूरत लिखूं, खूबसूरत लिखूं या कुछ और
तू माने या न माने मेरी ख़ामोशी में पायल की झंकार सी लगती है तू
तुझे ज़िद लिखूं, हद लिखूं, हया लिखूं, जीने की वजह लिखूं या कुछ और …………………………….
तुझे ख्वाब लिखूं, मेहताब लिखूं, आरज़ू लिखूं, ज़ुस्तज़ू लिखूं या कुछ और……………………………
“ऋतेश “