सुबह देर से क्यूँ नहीं आती, हर दोपहर उठकर सोचता हूँ
रात जल्दी क्यूँ नहीं सोती, हर सुबह सोकर सोचता हूँ
क्यूँ सोचता हूँ, ज़िंदगी के मायने कायदों से हटकर
क्यूँ नहीं रह पाता, मैं सर्द रात सा सिमटकर
मंज़िल जल्दी क्यूँ नहीं आती, हर मोड़ ठहरकर सोचता हूँ
सुबह देर से क्यूँ नहीं आती, हर दोपहर उठकर सोचता हूँ
रात जल्दी क्यूँ नहीं सोती, हर सुबह सोकर सोचता हूँ
गुमसुम से हो गए सुकून के हर मौसम
खफा हो गई रातें, उलझकर रह गए सब दिन
सब मिला वक़्त से पहले हमें, फिर किसका चेहरा हर बार खोजता हूँ
सुबह देर से क्यूँ नहीं आती, हर दोपहर उठकर सोचता हूँ
रात जल्दी क्यूँ नहीं सोती, हर सुबह सोकर सोचता हूँ
“ऋतेश “