आज़ादी की सालगिरह पर सबमे है उन्माद भरा
उम्र हो गई अड़सठ की, अब जाके देश जवान हुआ
बीता बचपन ठोकरों में इसका, सभ्यता को भी ठेस लगी
पड़ गई दरार संस्कृति में, जाति-पति की आग लगी
पश्चिमी विकास की आंधी में, सामाजिक मूल्यों की बलि चढ़ी
इस देश का जाने क्या होगा, अपराधियों के हाथों बागडोर पड़ी
दुश्मन नहीं है कोई अपना, हम एक दूजे के दुश्मन है
अपनी मर्ज़ी के मालिक हम, हम भारत की तक़दीर हैं
वैसे तो बहुत कुछ बिगड़ गया है, पर क्या हम कुछ कर सकते हैं
क्या है हममे ताकत इतनी, भ्रष्टों से हम लड़ सकते हैं
गर नहीं पता ये सब बातें, क्या खुद से सवाल कर सकते हैं?
अपने आने वाली पीढ़ी को, क्या हम स्वतंत्र रख सकते हैं?
“ऋतेश “